हिमालय की तराई क्षेत्र में स्थित उत्तर प्रदेश का जिला कुशीनगर का इतिहास बहुत प्राचीन व गौरवशाली है। सन 1876 ई0 में अंग्रेज पुरातत्वविद ए कनिंघम ने आज के कुशीनगर की खोज की थी। खुदाई में छठी शताब्दी की बनी भगवान बुद्ध की लेटी प्रतिमा मिली थी। इसके अलावा रामाभार स्तूप और और माथाकुंवर मंदिर भी खोजे गए थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह स्थान त्रेता युग में भी आबाद था और यहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के पुत्र कुश की राजधानी थी जिसके चलते इसे 'कुशावती' नाम से जाना गया था । पालि साहित्य के ग्रंथ त्रिपिटक के अनुसार बौद्ध काल में यह स्थान षोड्श महाजनपदों में से एक था। मल्ल राजाओं की यह राजधानी तब 'कुशीनारा' के नाम से जानी जाती थी। पांचवी शताब्दी के अंत तक या छठी शताब्दी की शुरूआत में यहां भगवान बुद्ध का आगमन हुआ था। कुशीनगर में ही उन्होंने अपना अंतिम उपदेश देने के बाद महापरिनिर्माण को प्राप्त किया था।
कुशीनगर से 15 -16 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में मल्लों का एक और गणराज्य पावा था। यहाँ जैन धर्म का प्रभाव था। कहा जाता है कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने पावानगर ( जो वर्तमान में फाजिलनगर शहर है ) में ही परिनिर्वाण प्राप्त किया था। इन दो धर्मों के अलावा प्राचीन काल से ही यह स्थल हिंदू धर्मावलंम्बियों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। गुप्तकाल के तमाम भग्नावशेष आज भी जिले में बिखरे पड़े थे। लगभग डेढ़ दर्जन प्राचीन टीले हैं जिसे पुरातात्विक महत्व का मानते हुए पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित कर रखा है। उत्तर भारत का इकलौता सूर्य मंदिर भी इसी जिले के तुर्कपट्टी में स्थित है। भगवान सूर्य की प्रतिमा यहां खुदाई के दौरान ही मिली थी जो गुप्तकालीन मानी जाती है। इसके अलावा भी जनपद के विभिन्न हिस्सों में अक्सर ही जमीन के नीचे से पुरातन निर्माण व अन्य अवशेष मिलते ही रहते हैं।
कुशीनगर जनपद का जिला मुख्यालय पडरौना है। जिसके नामकरण के संबंध में यह कहा जाता है की भगवान राम के विवाह के उपरांत पत्नी सीता व अन्य संबंधियों के साथ इसी रास्ते जनकपुर से अयोध्या लौटे थे। उनके पैरों से रमित धरती पहले पदरामा और बाद में पडरौना के नाम से जानी गई। जनकपुर से अयोध्या लौटने के लिए भगवान राम और उनके साथियों ने पडरौना से 11 किलोमीटर पूरब से होकर बह रही ' बांसी नदी ' को पार करके गए थे। आज भी बांसी नदी के इस स्थान को 'रामघाट' के नाम से प्रसिद्ध है। हर साल यहां भव्य नहान का मेला लगता है जहां यूपी और बिहार के लाखों श्रद्धालु आते हैं। बांसी नदी के इस घाट को स्थानीय लोग इतना महत्व देते हैं कि 'सौ काशी न एक बांसी' की कहावत ही बन गई है। मुगल काल में भी यह जनपद अपनी खास पहचान रखता था।
उदयराज सिंह
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